Thursday, October 20, 2011

आई

निदा फ़ाजली यांच्या कवितेचा स्वैर भावानुवाद

ज्वारीची ताजी भाकर, वर खमंग चटणी तशीच आई
चूल-बोळकी, पोतेरे, सांडशी, फुंकणी तशीच आई

कळकाच्या खाटेवर लेटुन कानोसा घे जाता-येता
जाग-निजेच्या सीमेवरची दुपार थकली, तशीच आई

चिमण्यांचा चिवचिवाट घुमवी राधेकृष्णा, अल्ला-हो-अक्बर
आरवता कोंबडा घराची कडी निखळती तशीच आई

बहीण, शेजारीण, बायको, लेक अशी विखुरली एकटी,
दिसभर दोरीवरुन चालते पोर गोमटी तशीच आई

दिला वाटुनी तोंडवळा, डोळे अन् कोठे स्वतः हरवली
जीर्ण, जुन्याशा अल्बमातली अल्लड मुलगी तशीच आई


आणि ही मूळ कविता

बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,

याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ ।


बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे ,

आधी सोई आधी जागी थकी दुपहरी जैसी माँ ।


चिड़ियों के चहकार में गूँजे राधा-मोहन अली-अली ,

मुर्गे की आवाज़ से खुलती, घर की कुंड़ी जैसी माँ ।


बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में ,

दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां ।


बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गई ,

फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी माँ ।



निदा फाजली

3 comments:

  1. किती चपखल !
    अनुवाद वाचून तितकाच भावुक झालो जितका मूळ रचना वाचून..

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  2. khupach sundar bhavanuvad.... kharach khup sundar

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  3. धन्यवाद शार्दूल, अमोल!

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