यावेळची अनुवादिता म्हणजे क़ैफ़ी आज़मी यांची 'औरत' ही अत्यंत प्रेरणादायी कविता. स्वातंत्र्यलढ्यातील योद्ध्यांच्या प्रियतमांसाठी लिहिलेली ही एक अप्रतिम कविता!
ऊठ लाडके, तुलाहि माझ्यासोबत चालायाचे आहे
तत्वज्ञान तुझ्यात आणि तू नक्षत्रांच्या रुपात वसशी
मुठीत घेउन आकाशाला पायदळी धरणीस तुडविशी
उचल नियतिच्या चरणांवरचे अगतिक मस्तक झटक्यासरशी
थांबणार ना मीहि इथे अन् कालगती का थांबते अशी?
किती काळ गडबडून जाशिल? तुला सावरायाचे आहे
http://www.youtube.com/watch?v=w61ELibfQiY
ही आहे मूळ कविता
औरत
उठ मेरी जान, मेरे साथहि चलना है तुझे
क़ब्ज़-ए-माहौल में लरज़ः शरर-ए-जंग हैं आज
हौसले वक़्त के और जीस्त के यकरंग हैं आज
आबगीनों में तपा वलवलः-ए-संग है आज
हुस्न और ईश्क हमआवाज़ व हमआहंग हैं आज
जिसमें जलता हूं उसी आग में जलना है तुझे
ज़िंदगी जहदमें है, सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं
उडने-खुलने में है नक्हत, ख़म-ए गेसूं में नहीं
जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आजाद रविश पर भी मचलना है तुझे
कद्र अबतक तेरी तारीख़ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं, बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है, दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज, जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
गोशेगोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेंस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
तोडकर रस्म के बुत बन्द-ए-क़दामत से निकल
जौफ़-ए-इशरत से निकल, वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़्स के खींचे हुए हल्क़:-ए-अज़मत से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या, गुल भी कुचलना है तुझे
तोड ये अज़्मशिकन दगदग:-ए-पन्द भी तोड
तेरी ख़ातिर है जो ज़न्जीर वो सौगंध भी तोड
त़ौक़ यह भी है ज़मर्रुद का गुलबन्द भी तोड
पैमाना-ए-मरदान-ए-ख़िरदमन्द भी तोड
बनके तूफ़ान छलकना है, उबलना है तुझे
तू फ़लातून व अरस्तू है, तू जोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में गर्दूं तेरी ठोकर में जमीं
हां उठा जल्द उठा पा-ए-मुकद्दर से जबीं
मैं भी रुकनेका नहीं, वक़्त भी रुकने का नहीं
लडखडायेगी कहांतक कि सम्हलना है तुझे