Wednesday, January 16, 2013

सवयी


[पुन्हा एका 'गुलजार' रचनेचा अनुवाद करण्याचा प्रयत्न]

कसा सवयीचा श्वास असे
जगणे का इतिहास असे?
चाहुल ना देही काही
नेत्री बिंब न छायाही
सुन्नपणे पावले चालती
प्रवास हा की नदी वाहती?
कितीक वर्षे, कितीक शतके
जगत चाललो, जगत चाललो
विचित्र किति असती सवयी!

मूळ रचनाकार : गुलजार
स्वैर भावानुवाद : क्रांति

ही मूळ रचना

सांस लेना भी कैसी आदत है
जिये जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आंखों में
पांव बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफर है जो बहता रहता है
कितने बरसों से, कितनी सदियोंसे
जिये जाते हैं, जिये जाते हैं
आदतें भी अजीब होती हैं!

गुलजार

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