Monday, March 26, 2012

अमर

भगवतीचरण वर्मा यांच्या  रचनेचा अनुवाद करण्याचा माझा प्रयत्न 

वसंत होता कधी पाहिला प्रिये फिकटल्या पाचोळ्याने 
हास्य फुलवले होते ओठी कधी आजच्या मुसमुसण्याने 
ओघळली आता नेत्रांतुन आणि विखुरली जी तुकड्यांतुन 
त्या स्वप्नांना मीही केव्हा जपले होते विश्वासाने

प्रीतरसाने ओथंबित किति हृदये, किति उन्मादक लोचन,
जनन-मरण ओघात अकल्पित कोमल भावे दृढ आलिंगन
तरी एकटी तूच कशी झालीस भार माझ्या आयुष्या?
प्रिये, बांधले ज्याने, तोडुन जाई तो प्रीतीचे बंधन

स्पंदनात तू लहरत होतिस केव्हा माझ्या अंतर्हृदयी ?
मीही प्राणांचे प्राणांशी जपले नाते कुठल्या समयी ?
कुणा दुज्याच्या इच्छेखातर दोघे येथे भेटत होतो,
एक विचारू? खरेच होते प्रेम तुझ्या वा माझ्या हृदयी ?

अमृत निघते ज्यातुन, असते त्याच सागरी कटू हलाहल
पंचम छेडत त्यात गुंफतो व्यथागीत प्राणांचे कोकिळ
ज्याला म्हणती अंत, तीच असते नांदी नव आरंभाची
काय तुला ठाऊक किती वैभवात माझे विराण घरकुल ?

काल विवश होतो तुजसाठी, आज स्वत:साठीच, स्वत:चा
चौकटीत जे बांधत होते, नाद सोडला त्या स्वप्नाचा
पावलांस मी गती दिली अन् आयुष्याची ज्योत शिरावर
रडतकुढत तू ताप म्हणालिस, खेळच होता तो चेष्टेचा

क्षणोक्षणी मी पुढे चाललो, गती खालती गतीच वरती
फिरतच राही गगन सारखे आणि राहते फिरतच धरती
भ्रमात या मी भ्रमलो आणिक भ्रमित जगी या तुला भेटलो 

जग क्षणभंगुर, तू क्षणभंगुर, अमर मीच केवळ या जगती  आणि ही मूळ रचना पतझड़ के पीले पत्तों ने प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन, वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में भी था मुझको विश्वास कभी ।

कितने ही रस से भरे हृदय, कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है, विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है, उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव है मेरे इस उजड़े घर में ?

कल तक जो विवश तुम्हारा था, वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना, मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे, सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल, गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी, भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो, बस मैं हूँ केवल एक अमर !


रचनाकार: भगवतीचरण वर्मा

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