Wednesday, December 19, 2012

विणकर मित्रा!

गुलजारजींच्या यार जुलाहे या कवितेच्या स्वैर भावानुवादाचा तोकडा प्रयत्न


कसब मलाही शिकव जरासे विणकर मित्रा! 

नित्य पाहिले विणताना तू 
तुटला अथवा सरला धागा 
बांधुन किंवा नवीन जोडुन
सहजी विणसी उरलेला पट
तरी तुझ्या वस्त्रात कुठेही 
कुणा न दिसला जोड गाठीचा 
किंवा धागा नाही निसटला 
किती सफाई अन् हातोटी,
गुंतुन जाती धागे-गाठी 

एकदाच मी विणले होते 
एकच नाते, विणकर मित्रा,
स्वच्छ, टचाटच दिसती त्याच्या 
सगळ्या गाठी, विणकर मित्रा ..................

कसब मलाही शिकव जरासे विणकर मित्रा........
**********************
आणि ही मूळ कविता
**********************
यार जुलाहे
मुझको भी तरक़िब सिखा कोई यार जुलाहे ...


अक्सर तुझको देखा हैं के ताना बुनते ... 
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ ...
फिरसे बांध के और सिरा को जोड के उस में...
आगे बूनने लगते हो ...
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिरा बुंतर की, देख नही सकता हैं कोई

मैने तो एक बार बुना था एक हि रिश्ता ...
लेकिन उसकी सारी गीरहें साफ नजर आती हैं .. मेरे यार जुलाहे

मुझको भी तरक़िब सिखा कोई यार जुलाहे ..........................


गुलजार 

No comments:

Post a Comment