Thursday, April 21, 2011

विसरावे, हेच बरे!

जावेद अख्तर यांच्या "भूल जाऊँ अब यही मुनासिब है" या कवितेचा स्वैर भावानुवाद.



विसरावे, हेच बरे! विसरावे सांग कसे?
असशी तू वास्तवात, हे केवळ स्वप्न नसे!

समजेना मन वेडे, छळवादी, दुष्ट कसे,
जे कधी न घडले, त्या भासांचे जपत ठसे!

बंदिश ती, सूर जिला लाभला कधीच नसे,
गुपित राहिले मनात, ओठी आलेच नसे!

बंध जो परस्परांत राहिला, न आज असे,
घडले काही न तरी माझ्या स्मरणात कसे?

फसव्याला, चकव्याला मन हळवे भुलत असे,
या अशा स्थितीत तुला विसरावे सांग कसे?

असशी तू वास्तवात, कल्पित वा स्वप्न नसे!!!!


आणि ही मूळ कविता

भूल जाऊँ अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं

यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ कमबख़्त
भुला सका न ये वो सिलसिला जो था ही नहीं

वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं

वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुम से

वो एक रब्त
वो हम में कभी रहा ही नहीं

मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं

अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए
तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं

- जावेद अख्तर



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