दीपककुमार यांच्या "उदासी खूबसूरत" या कवितेचा स्वैर भावानुवाद.
लाटांच्या कोलाहलातही असीम शांती जपतो सागर
स्वर्णरक्तिमा नभात विहरत रंगबिंब सांडतो जलावर
किलबिलणारे थवे निघाले परतुन अपुल्या कोटराकडे,
श्रमपरिहारा निघे सूर्यही क्षितिजपार, अन् सागरी बुडे
दृश्य रोजचे पहात असता नकळत झरते डोळ्यांतुन सर
उदास कातरवेळ असे ही, तरी भासते अतीव सुंदर
प्रश्न पडे हा नित्य निरंतर, मनासारखे मिळे न उत्तर,
पितृगृहाला सोडुन जाता पतीगृही, रमणी रडताना,
मेघ नसे आभाळी तरिही उन्हे हरवताना, दडताना,
रंगपंचमी सरता धूसर सांज काजळीला भिडताना
चंद्रकळेचा पदर भर्जरी, तशी उदासी नसते सुंदर?
आणि ही मूळ रचना
उदासी खूबसूरत...
अम्बुधि लहरों के शोर में
असीम शान्ति की अनुभूति लिए,
अपनी लालिमा के ज़ोर से
अम्बर के साथ – लाल सागर को किए,
विहगों के होड़ को
घर लौट जाने का संदेसा दिए,
दिनभर की भाग दौड़ को
संध्या में थक जाने के लिए
दूर क्षितिज के मोड़ पे
सूरज को डूब जाते देखा!
तब, तट पे बैठे
इस दृश्य को देखते
नम आँखें लिए
बाजुओं को आजानुओं से टेकते
इस व्याकुल मन में
एक विचार आया!
किंतु उस उलझन का,
परामर्श आज भी नही पाया!
की जब विदाई में एक दुल्हन रोती है,
जब बिन बरखा-दिन में धुप खोती है,
जब शाम अंधेरे में सोती है,
तब, क्या उदासी खुबसूरत नही होती है?
- दीपक कुमार
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